इस्लाम धर्म में हर साल दो बड़े त्योहार मनाए जाते हैं. एक ईद-उल-फित्र तो दूसरा ईद-उल-अजहा. ईद-उल-अजहा के मौके पर मुस्लिम धर्म में नमाज पढ़ने के साथ-साथ जानवरों की कुर्बानी भी दी जाती है. इस्लाम के अनुसार, कुर्बानी करना हजरत इब्राहिम की सुन्नत है, जिसे अल्लाह ने मुसलमानों पर वाजिब कर दिया है.
ईद-उल-अजहा का जश्न 3 दिन तक बड़ी धूम से मनाया जाता है. इसी हिसाब से कुर्बानी का सिलसिला भी ईद के दिन को मिलाकर तीन दिनों तक चलता है. ईद के मौके पर बाजारों की रौनक देखने को बनती है.
मुस्लिम धर्म के लोग अल्लाह की रजा के लिए कुर्बानी करते हैं. इस्लाम के मुताबिक, सिर्फ हलाल तरीके से कमाए हुए पैसों से ही कुर्बानी जायज मानी जाती है.
जानें कब है ईद-उल-अजहा 2018-
इस साल बकरीद का त्योहार 22 अगस्त 2018 को मनाया जाएगा. बता दें, हर साल इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक, धू-अल-हिज्जा की 10 तारीख को बकरीद मनाई जाती है.
इस्लाम में कुर्बानी का महत्व- इस्लाम में कुर्बानी का काफी महत्व है. कुरान में कई जगह जिक्र किया गया है कि अल्लाह ने करीब 3 दिनों तक हजरत इब्राहिम को ख्वाब के जरिए अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करने का हुक्म दिया था. हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम को सबसे प्यारे उनके बेटे हजरत ईस्माइल थे.
हजरत इब्राहिम ने ये किस्सा अपने बेटे हजरत ईस्माइल को बताया कि अल्लाह ने उन्हें अपनी सबसे प्यारी चीज कुर्बान करने का हुक्म दिया है और उनके लिए सबसे प्यारे और अजीज उनके बेटे ही हैं.
हजरत इब्राहिम की ये बात सुनकर हजरत ईस्माइल ने अल्लाह के हुक्म का पालन करने को कहा और अपने वालिद (पिता) के हाथों कुर्बान होने के लिए राजी हो गए. उस समय हजरत ईस्माइल की उम्र करीब 13-14 साल की थी.
माना जाता है कि हजरत इब्राहिम को 80 साल की उम्र में औलाद नसीब हुई थी. हजरत इब्राहिम के लिए अपने बेटे की कुर्बानी देना एक बड़ा इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ अल्लाह का हुक्म था तो दूसरी तरफ बेटे की मुहब्बत. लेकिन हजरत इब्राहिम और उनके बेटे हजरत ईस्माइल ने अल्लाह के हुक्म को चुना.
बेटे को कुर्बान करना हजरत इब्राहिम के लिए आसान नहीं था. बेटे को कुर्बानी देते समय उनकी भावनाएं कहीं आड़े ना आ जाए, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांधी और बेटे पर छुरा चलाने के लिए तैयार हो गए.
लेकिन जैसे ही उन्होंने बेटे पर छुरा चलाया तो अल्लाह ने उनके बेटे की जगह दुंबा ( एक जानवर) भेज दिया और हजरत ईस्माइल की जगह दुंबा कुर्बान हो गया. तभी से हर हैसियतमंद मुस्लमान पर कुर्बानी वाजिब हो गई.
इस्लाम धर्म में माना जाता है कि अल्लाह ने जो पैगाम हजरत इब्राहिम को दिया वो सिर्फ उनकी आजमाइश कर रहे थे. ताकि ये संदेश दिया जा सके कि अल्लाह के फरमान के लिए मुसलमान अपना सब कुछ कुर्बान कर सकते हैं.
किन लोगों पर कुर्बानी वाजिब है-
इस्लाम के मुताबिक, वह शख्स साहिबे हैसियत है, जिस पर जकात फर्ज है. वह शख्स जिसके पास साढ़े सात तोला सोना या फिर साढ़े 52 तोला चांदी है या फिर उसके हिसाब से पैसे. आज की हिसाब से अगर आपके पास 28 से 30 हजार रुपये हैं तो आप साढ़े 52 तोला चांदी के दायरे में हैं. इसके मुताबिक जिसके पास 30 हजार रुपये के करीब हैं उस पर कुर्बानी वाजिब है. जो शख्स हैसियतमंद होते हुए भी अल्लाह की रजा में कुर्बानी नहीं करता है वो गुनाहगारों में शुमार है.
कुर्बानी के हिस्से- कुर्बानी के लिए होने वाले जानवरों पर अलग-अलग हिस्से हैं. जहां बड़े जानवर ( भैंस ) पर सात हिस्से होते हैं तो वहीं बकरे जैसे छोटे जानवरों पर महज एक हिस्सा होता है. मतलब साफ है कि अगर कोई शख्स भैंस या ऊंट की कुर्बानी कराता है तो उसमें सात लोगों को शामिल किया जा सकता है. वहीं बकरे की कराता है तो वो सिर्फ एक शख्स के नाम पर होता है.
इस्लाम में कुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से करने का हुक्म दिया गया है, जिसमें एक हिस्सा गरीबों के लिए होता है. दूसरा हिस्सा दोस्त और रिश्तेदारों में तकसीम किया जाता है. वहीं, तीसरा हिस्सा अपने घर के लिए होता है.
कैसे जानवर की कुर्बानी की जाती है- इस्लाम में ऐसे जानवरों की कुर्बानी ही जायज मानी जाती है जो जानवर सेहतमंद होते हैं. अगर जानवर को किसी भी तरह की कोई बीमारी या तकलीफ हो तो अल्लाह ऐसे जानवर की कुर्बानी से राजी नहीं होता है.
Source : aajtak.in
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